गोपाल गुरु सेवा ट्रस्ट
वृन्दावन की पावन भूमि में एक ऐसा अद्भुत स्थान है जहाँ समय थम-सा गया है, किंतु भजन की धुन कभी नहीं रुकी। श्री गोपाल गुरु सेवा संस्थान में आपका स्वागत है - यह केवल एक संस्था नहीं, बल्कि निरंतर प्रवाहमान आध्यात्मिक ऊर्जा का एक जीवंत केंद्र है। लगातार 95 वर्षों से, यहाँ का 24 घंटे, 365 दिन चलने वाला अखंड संकीर्तन इस स्थान को संपूर्ण विश्व की एक अनूठी और ऐतिहासिक पीठ बनाता है।
श्रीगोपाल गुरु
श्रीमुरारि पण्डित के पुत्र थे श्रीगोपाल, इनका पूर्व नाम था मकरध्वज। ये ही बाद में श्रीगोपाल गुरु-नाम से प्रसिद्ध हुए। श्रीगोपाल ने श्रीमन्महाप्रभु के प्रिय भक्त श्रीवक्रेश्वर पण्डित से दीक्षा-शिक्षा ग्रहण की थी। ये बाल्यकाल से ही श्रीमन्महाप्रभु की सेवा में लगे रहते थे।
एक दिन श्रीमन्महाप्रभु लौकिक-लीलावश शौचादि शारीरिक-क्रिया के लिये जंगल में गये, ये भी जल-पात्रादि लेकर उनके साथ थे। श्रीमहाप्रभु ने अपनी जिह्वा को दाँतों से मजबूती से दबा रखा था उस समय। क्योंकि उनकी जिह्वा पर हर समय कृष्णनाम नृत्य करता था।
श्रीगोपाल ने श्रीमहाप्रभु से कौतुकवश पूछा-"प्रभो ! आपने बहिर्देश-गमन के समय अपनी जिह्वा को दाँतों से क्यों दबा रखा था?" श्रीमहाप्रभु ने कहा- 'बहिर्देशगमन (शौचादि) के समय बोलना, मुख खोलना निषिद्ध है। मेरी जिह्वा को नामोच्चारण का ऐसा अभ्यास पड़ गया है कि उस अवसर भी नाम-विनोद में नाचने लगती है, अतः मैं उसे दाँतों से मजबूती से दबाकर रखता हूँ।'
श्रीगोपाल ने कहा- "आप तो स्वतन्त्र ईश्वर हैं। किन्तु मेरी एक जिज्ञासा है साधारण मनुष्य को लेकर। वह यह कि यदि बाह्यकृत्य के समय ही प्राकृत मनुष्य के प्राण चले जायें, तो उसके प्राण नाम लेते-लेते तो न जा सके। मरण के समय वह नाम ग्रहण से वंचित रह जायेगा। उसकी क्या गति होगी?"
बालक गोपाल के मुख से ऐसा अमृत-भाषण सुनकर श्रीमहाप्रभु अति हर्षित हुए और बोले - "गोपाल ! तुमने बहुत मार्मिक बात कही है-नामग्रहणकारियों के लिये। आज से तुम 'गुरु' पद के अधिकारी हुए और तुम्हारा नाम - 'गोपाल गुरु' हो गया।"
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